गीत(शरद पूर्णिमा)
गीत(शरद पूर्णिमा)
शरद पूर्णिमा बहुत सुहानी,
मन में प्रीति जगा देती।
शीतलता भी पूनम निशि की,
विरह-अगन सुलगा देती।।
विमल चाँदनी नभ की शोभा,
विरही मन लख तड़प उठे।
ऐसी अनुपम शोभा लखकर,
प्रेमांकुर भी पनप उठे।
मधुर मिलन की आस जगा कर,
भाव निराश भगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
प्रीति पुरानी और निखरती,
शरद-पूर्णिमा रात को।
हल्की ठंडी रात उजाली,
मधुर करे मुलाकात को।
खाई गई क़सम ऐसे में,
दिल को नहीं दग़ा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
निर्मल-स्वच्छ गगन नीला भी,
शोभा और बढ़ा देता।
रजनी का शशि-दीप तिमिर पर,
चादर ज्योति चढ़ा देता।
प्रकृति सुंदरी आभा-मंडित,
खिन्न भाव विलगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
शरद-पूर्णिमा रजनी को ही,
रास रचाई नटवर ने।
सभी गोपियों को सँग लेकर,
धूम मचाई गिरिधर ने।
परिभाषित कर प्रेम-रूप को,
नव संबंध सगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
Mohammed urooj khan
06-Nov-2023 12:53 PM
👌🏾👌🏾👌🏾
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